Thursday, 16 April 2015

आशा और निराशा... बस एक क्षणिक अनुभूति!

आशा और निराशा... बस एक क्षणिक अनुभूति!

आज हम आप सभी के साथ एक कहानी साझा कर रहे हैं, जो हमें वास्तविक सत्य का आभास कराती है।

मेरा नाम स्नेह है, मैने पॉलिटिकल हॉनर्स किया है। और बैंकिंग की तैयारी करता हूँ। मेरे हिसाब से मैं इतना समझदार हूँ की यदि मन लगा कर पढ़ाई करूं तो बैंक आदि की परीक्षाएं निकालने की क्षमता रखता हूँ।

सब (कम से कम मेरे दोस्त) अक्सर कहते हैं कि लड़कों के ऊपर इतना (लड़कियों जितना) दबाव नहीं होता क्यूंकि उनके पास समय की कोई सीमा नही होती, आज नहीं तो कल उन्हें कुछ करने का मौका जरूर दिया जायेगा। जबकी लड़कियों को खुद को साबित करने (रोजगार और बेरोजगारी में से एक को चुनने के) के लिए कुछ ही वर्षों का समय मिलता है।
एक हद तक यह बात सच भी है, किन्तु हर लड़के के पास असीमित समय नहीं होता। कम से कम मेरे पास तो नहीं है। मेरा परिवार उत्तरप्रदेश का एक साधारण परिवार है मैंने जीवन भर अपनी पढ़ाई घर से बाहर रह कर की है। मेरे घर में पापा, मम्मी और बाबा (दादा) हैं। पर न जाने क्या हुआ है एक साल से बाबा की तबियत को!
बाबा पुराने ज़माने के होते हुए भी इतने नए विचारों के हैं, जितने शायद मेरे पापा भी नहीं हैं। 
हम सब को बाबा से बहुत ही लगाव है। मेरे परिवार वालों ने मुझे नौकरी करने से भी मना किया और कहा प्राइवेट नौकरी में कोई फायदा नहीं है, मन लगाकर पढाई करो। वैसे तो ऐसा कोई दबाव नहीं था मेरे ऊपर किन्तु जब से बाबा की तबियत खराब रहने लगी, मुझे बहुत डर लगता था। इन्ही सब विचारों से भरा हुआ मैं इस बार के पी.ओ परीक्षा परिणामों का बहुत उत्सुकता से इन्तजार करने लगा।

परिणाम आये!!

ऐसा लगा की सब छूट गया। मैं सबकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया । दो पेपर दिए, एक में भी नाम नहीं आया। मम्मी, पापा ने मेरे ऊपर गलत भरोसा किया। और बाबा, कहीं उनको कुछ हो गया तो...वो मुझे नौकरी करते हुए भी नहीं दखे पायेंगे शायद! क्या करू मैं...यदि कोई भी परीक्षा निकल जाती एक बार...फिर जो होता देख लेता।   
कैसे करूं घर पर फोन की एक साल का समय और लगेगा.... आप लोगों को अभी और इन्तजार करना पड़ेगा।
अब इसे कुछ भी कहें फोन करने की हिम्मत नहीं हुई या फिर हताश निगाहों में घरवालों को देखने की चाहत, मैंने परिणाम देखते ही घर वापसी की टिकट करा ली। वहां पहुंचा बाबा घर के बाहर की क्यारी (मैदान के किनारे लगे पेड़-पौधे) का रख रखाव कर रहे थे। सबसे पहले तो उनकी अच्छी हालत देख कर ख़ुशी हुई। फिर मैं उनके पास जाकर चिल्लाने लगा ‘ये आप क्या कर रहे हैं, ये जरूरी है? कोई और नहीं है क्या? तभी तो होती है तबियत खराब!’ (वास्तव में तो मैं कहना चाह रहा था- ‘ ये क्या है आप तो बिल्कुल निराश नहीं लग रहे, आपका पोता किसी काम का नहीं है आपको हताशा होना चाहिए। और आप अपना जीवन सामान्य ढंग से जी रहे हैं, वो भी मुस्कुराते हुए)।

बोलते-बोलते मैं ये कह पड़ा की “आपकी तबियत खराब थी, मुझे इतनी चिंता हो रही है और पता है आपको? मेरे नम्बर भी नहीं आये। गयी सारी मेहनत”

बाबा ने बड़ी सरलता से पूछा – ‘अब नहीं होगी क्या परीक्षा?’

मैं चुप रहा। फिर मैंने कहा ‘हाँ होगी तो...पर समय?’

बाबा- क्यूँ? बहुत समय है अभी तो आज तारिख ही क्या है??? और तुम्हारी उम्र भी तो कम है। इतनी भी क्या जल्दी है तुम्हे...नौकरी करने की। लड़की पसंद कर ली है क्या कोई?’ और वो हंसने लगे।
मुझे भी हंसी आ गयी। और जैसे दिल फिर से आशाओं से भर गया! मानो कल कोई परिणाम देखे ही न हों। घर के अन्दर जाते-जाते बाबा ने एक और बात कही ‘और बेटा, मेहनत कभी बेकार नहीं जाती’।

रोज सुबह उगते सूरज को देख कर मन में कितनी आशाएं बंध जाती हैं और दिन के प्रत्येक घंटे के साथ जैसे-जैसे सच का सरोकार होता है, हम ये यकीन कर लगते हैं की सब कुछ वैसा ही रहेगा न कुछ बदला है न ही कुछ बदलेगा।
जब इतना पढ़ कर भी नहीं निकला पेपर तो अब क्या पढूं जो निकलेगा? मैं भी वही हूँ किताबें भी वही हैं...अगली बार कैसे निकल जायेगा पेपर? तो ध्यान रखें कि दिन वही है रात वही है पर समय नया है। जो समय गया वो अब नहीं आएगा- जैसे कि उन्ही किताबों को पढ़ने का हमारा नजरिया नया है। प्रश्नों को हल करके मिलने वाले उत्तर पर हमारा जीवन नहीं आधारित है, हमारा जीवन आधारित है उस निर्णय पर जो हम परिणाम देखने के अगले ही क्षण में सोचते है। वह क्षण हमारी सफलता और असफलता तय करता है।

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